श्रीनगर गढ़वाल की थाती प्राचीन समय से ही इतिहास की विभिन्न घटनाओं से विख्यात रही है. माँ धारी देवी के चरणों व कमलेश्वर माहदेव की तपो भूमी में बसा यह नगर गढ़वाल की कभी राजधानी हुआ करती थी. अलकनंदा नदी इस थाती को दो भागों में बाँट देती है एक तो टीहरी जिले से सटा है तो दूसरा पौड़ी जिले से और यही कारंण है यह टिहरी रियासत व गढ़वाल रियासत का मुख्य केंद्रबिंदु रहा है. इसके प्राचीन और भौतिक इतिहास में यह भूमि पानी के अस्तित्व के लिए झूझती रही है और वर्तमान समय में भी पानी का अस्तित्व इसके लिए एक और आंदोलन का बीज बो गया. इसी लिए इस पानी के अस्तित्व को में प्राचीन और वर्तमान इतिहास के घटनाक्रम से जोड़ता हूँ क्योंकि दोनो इतिहास एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों समय में भी मानवता की भलाई के लिए पानी का अस्तित्व जरूरी था, है और रहेगा पर प्रचानी समय के पानी का अस्तित्व मानव इतिहास में एक अमर कहानी के रूप में जिंदा है और समस्त उत्तराखंड की जनता आज भी उसका गुणगान गाया जाता है. मैं बात कर रहा हूँ बीरभड़ माधोसिंह भंडारी के त्याग की और दूसरा विकास रूपी अस्तित्व की हत्या करने वाला पुरुष जे वी के रेड्डी.
माधो सिंह भंडारी का जन्म सन् 1595 में मलेथा गाँव में हुआ था, व पिता का नाम सेणबाण काला भंडारी था और वो श्रीनगर राजदरबार में सेनापति थे माधो सिंह भंडारी के पिता के अदम्य साहस को देखते हुए उनको गढ़वाल नरेश की सेना का साहसी सेनापति कहा जाता था जिन्होंने अपने ही दम पर कई गढ़ों पर विजय प्राप्त की थी. बच्चपन से ही माधो सिंह भंडारी अपने पिता के साहस और पराक्रम को देखकर काफी प्रभावित था और बाद में उसने भी गढ़वाल नरेश की सेना में एक सैनिक के रूप में काम करना शुरु कर दिया.(1629-1646) श्रीनगर गढ़वाल में महिपाल शाह राजा थे और उन्होंने माधोसिंह भंडारी की वीरता का कौशल देखते हुए उन्हे अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया क्योंकि माधो सिंह के नेतृत्व में ही गढ़वाल के कई छेत्रो में राज्य का विस्तार किया. लेकिन इसी बीच छेत्र में भयंकर अकाल पढ़ गया और जिससे माधो सिंह भंडारी का गाँव भी सूखे की जद में आ गया, वर्षा ना होने के कारणं मलेथा के खेत सूखने लगे पास कहीं से भी खेतों के लिए पानी पहुँचाना नामुमकिन था, अलकनंदा नदी के तट के उपर बसा ये गाँव पानी की की बूँद बूँद के लिए तरस रहा था फसलें सब सूख गई थी.
माधो सिंह भंडारी जब अपने गाँव पहुंचे तो ये भयावह स्थिति देखकर गाँव में पानी की व्यवस्था के लिए सोच विचार करने लगे. गाँव में पानी की कमी दूर करने का एक ही रास्ता था दूसरी पहाड़ी के पीछे “डांगचौंरा दुगड्डा” के पास बहने वाले “चन्द्रभागा नदी” से किसी भी हाल में एक नहर बनाई जाए, लेकिन ये कार्य उस दौर में बहुत मुश्किल था, और बिना सुरंग पानी गाँव में लाना एक सपना जैंसा था, बाद में माधो सिंह भंडारी ने सुंरग का निर्माण करने का फैसला लिया और गाँव के लोगों के साथ मिलकर कई महीनों के कठिन परिश्रम बाद 225 फीट लंबी सुरंग बनाई गई, जब नहर बनी तो गाँव में खुशी पसर गई कि जल्द ही गाँव में पानी आ जयेगा और मलेथा के खेत फिर से अरे भरे हो जायेंगे, मगर एैंसा हुआ नहीं, लोग और परेशान होने लगे , कई तरह की मिन्नतें करने के व देव पूजन पाठ, बकरों की बलि देने के बाद भी नहर में पानी नहीं आया, माधो सिंह के चेहरे पर भी निराशा की चमक दिखने लगी सभी प्रकार के साम दंड भेद करने पर भी नहर में पानी नहीं आया, एक रात माधो सिंह भंडारी अपनी तिबारी में सो रखे थे, सपने में उनकी कुल देवी प्रकट हुई और देवी ने कहा जब तक तुम अपने पुत्र की बलि नहीं दोगे तब तक नहर में पानी नहीं आयेगा, ये सपना देखकर माधो सिंह अंदर ही अंदर भयभीत हो गये क्योंकि उनका एक ही पुत्र था “गजेसिंह” . फिर बाद में उन्होंने अपने इस सपने के बारे में अपनी धर्मपत्नी उदीना को बताया तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। और आंसुओं की गंगा बहने लगी, उसने अपने इकलौते पुत्र को सीने से लगाया. पर माधो सिंह आखिरकार अपने निर्णय पर अडिग हो गये गाँव की खुशि के लिए अपने बेटे की बलि देना ही आखिरी रास्ता था. और आखिरकार वो दिन उनके आँखो के सामने आ ही गया जैंसे ही माधो सिंह भंडारी ने नहर के मुहाने के सामने अपने बेटे की बलि दी पीछे से पानी की बौछार उसके सर को मलेथा के खेतों की तरफ बहा के ले गया पानी की पहली बौछार माधो सिंह भंडारी के पुत्र गजे सिंह के खून से मलेथा के खेतों में बहने लगी, और तब से लेकर आजतक वो नहर मलेथा के खेतों को सींच रही है. कहते हैं कि अपने बेटे की बलि देने के बाद माधो सिंह भंडारी ने मलेथा गाँव हमेशा के लिए छोड़ दिया था.
पर श्रीनगर की ये धरती 21 वीं सदी में भी पानी के अस्तित्व के लिए अपनी इस थाती का बलिदान देना पड़ा. जब उत्तरप्रदेश, हरियाणं व पंजाब के कुछ गाँव अंधेरे से अछूते थे और इस आधुनिक दौर में भी उन गाँव में खुशियों का अंधेरा छाया हुआ था, तब इन राज्यों के मुख्यमंत्रीयों ने घनघौर जपतप किया कि कैंसे अपने राज्य के गांवों से अंधियारा छंटैगा. फिर उनका दिव्यदृष्टि इस श्रीनगर की थाती पर पड़ी और उन्होने 2007 में इस पहाड़ के जयचंद जो देहरादून व दिल्ली में रहकर पहाड़ को बेचकर अपनी मवासी चमका रहे हैं उन्होने इस श्रीनगर की माटी को बेच डाला और दूर दक्षिण भारत के हैदराबाद के रहने वाले कलजुगि विकास पुरुष जे वी के रेड्डी के हाथों इस श्रीनगर की ताथी का चीरहरंण करवा दिया. उसने अपने पुत्र की बलि तो नहीं दी पर उसने माँ धारी देवी के पोरांणिक अस्तित्व की बलि देकर इस धरा को छींण विछिंण कर दिया. प्रकृति का विनाश कर व चौरास के खिलते हुए खेत को उजाड़ कर विद्युत परियोजना का जीर्णोध्दार किया. अलकनंदा नदी का अस्तित्व मिटा कर उसकी आत्मा का सर्वनाश कर दिया. जहाँ एक तरफ प्रकृति अपने हक्क के लिए रोती रही वहीं सत्ताधारी दल विकास की महिमा गाती रही. लगभग सवा चार सौ साल बाद ये धरा फिर पानी के अस्तित्व के लिए फिर से जूझने लगी.
माधो सिंह भंडारी को उस दौर का सिविल इंजीनियर कहा जा सकता है जिसने खेतो को सींचने के लिए बिना प्रकृति का नुकसान किए बिना नहर बनाई. भले नहर बनने का बाद जब पानी नहीं पहुँचा गाँव में और अपने खून का त्याग करना पड़ा प्रकृति व जनमानस की भलाई के लिए, जिसकी गाथा आज भी उत्तराखंड के वासी गाते हैं और एक आज का आधुनिक इंजीनियर है जिसने प्रकृति का विनाश करके के विकास का बीज बोया हो उसे उत्तराखंड का वासी कभी सम्मान नहीं दे सकता. क्योंकि उसने नदी, खेत, पर्यावरण, आस्था का कत्ल करके ये महारत हासिल की है. और ये भी कटु सत्य है आखिर कब तक टिहरी का भूभाग पानी के अस्तित्व के लिए अपना त्याग देता रहेगा. ये भविष्य का इतिहास बतायेगा, क्योंकि टिहरी एक एैंसा जिला बन गया है जो हर तरफ से पानी में डूबता जा रहा है.
लेख: हरदेव नेगी
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