
नजरें फिरती कहाँ हैं,
अब तुझसे मिलने को़
गलियां शहर की हैं
कौन बंद करें इन खिड़कियों को,
नजरें………….. . .!
ठिठुरती रात अंधेरे से हैं।
अमावस ताके चाँदनी रातों को.
चाँद भी बड़ा चालाक है।
देर से निकलता है पूस की रातों को.
नजरें . . . ……… खिड़कियों को,
प्यासे झरने तरस रहें हैं,
पनघट ताके बादलों को.
नदियाँ भी खुद प्यासी हैं,
भला कैंसे बुझाए संमदर की प्यास को.
नजरें………………खिड़कियों को,
उन गीतों से हम मिटा रहें,
कह ना सके जिन अल्फाजों को.
बेबस हम यहाँ हैं
खुद अपनी बेबसी मिटाने को.
नजरें………………..खिड़कियों को
लेख – हरदेव नेगी