
बच्चपन में हम ग्वेर छ्वोरों की एक ही ही धांण रहती थी, सुबेर से ब्याखुनि तक बस ग्वोरू को बौंण व चारी ले जाने और गुठ्यार में वापस लाने की धांण. खाश कर दिन की 10 बजे वाली स्कूल में सबेर-सबेर ग्वोरू को जंगल छोड़ना और स्कूल से घर लौट आने के बाद उनको लेने जाना वैसे तो बल ये ड्यूटी बगत के हिसाब से बदलती रहती थी.!!!!!! जब दीवाली के समय गायों को चार धारी ( घास के जंगल ) में छोड़ना तब गायों की भी दीवाली होती थी क्योंकि सोंणां का मैंना लगने से पहले चारी बंद हो जाती थी ठीक कार्तिका मैना मैं छोटि दिवाली के दिन खुल जाती थी तब खूब घास होता था दिपावली पर बल्दू की पूजा होती थी और उनको दोफरा में झंगोरू का पीना खिलाया जाता था, सबकी ग्वेर छ्वोरों की दादी माँ जी खिसों में भरकर चूड़ा भुखड़ा देती थी.
फिर जब सारयो ( खेतो में फसल कटाई हो जाती ) उसके बाद गायों को छोड़ देते वो दिन भर घास चरती रहती और हम दिन भर क्रिर्केट खेलते रहते तब तक जब तक गाय किसी के पुंगड़े ( खेत ) मे उज्याण न चली जाए ।कभी कभी तो बाटो घाटों गदरों और पाखों में भी गाय के साथ जाना होता था ।।।।।।।।।हर झुंड में गाय भी अलग अलग प्रकार की होती थी और हर झुंड में एक पूना बलदु ( जिसका सर सफेद रंग का होता था ) वो दूर से पहचानने में आ जाता था ।।।।।।।कुछ लोगो के ऐसे भी बलदु होते थे जो दिखने में तो मरीयल होते थे जो हॉल ( हल) भी बड़ी मुश्किल से लगता होलि(हल लगाते वक़्त) पट पोड जाता और तब उठता ही नही था पर जब उज्याण खाने की बारी आती तो वो सबसे पहले दिखाई देता ।।।।।।।।।।।जहाँ कभी भी कोई चाची बोडी गाली दे रही होती है तो हम फट समझ जाते की उसका बलदु चला गया होगा उज्याण.
एक ऐसा भी बलदु होता जो लड़ने के लिए अपने सिंग पल्याता रहता ( तेज करते रहता ) चाहे वो मार खा ले पर वो रोज लड़ता और सिंग् तोड़ देता ।एक ऐसा भी बलदु होता जिसकी पूछ कटी होती जिसको थोड़ा हाथ लगाने पर वो तेजी से भाग जाता ।कुछ तो इतने डीट जिकुड़ी वाले बल्दु या गाय होती हैं जो कभी बगत पर घर नही आते थे वो रात भर गुम रहते फिर घर वाले टॉर्च ले कर उसको ढूंढने जाते और वो कही नही मिलता फिर सुबह कोई गाली दे रहा होता कि तुम्हारे बल्दु ने हमरा पुंगणों ( खेत ) सफा चट कर दिया, तब वो वहाँ मिलते थे, एैंसे ग्वोरू को बाग भी हर्च जाता था,कुछ तो इतने शांत बलदु होते चाहे उन पर बैठ कर घर वापस आ जाओ वो कुछ नही करता.
जब गायों को चारी में ले जाते तो उनके साथ रहने की जरूरत नही होती क्योकि वहाँ खूब घास होती थी बारिश होती तो वड्यार पर ( गुफा) बैठ जाते और खूब गप्पे लगाते, महीने में एक बार तो जंगल मे गायों के साथ खाना बनाने के लिए ले जाते थे, सभी ग्वेर अपने घरों से घर के चांवल, दाल, लूंण, मर्च हल्दी का गेढ़ा और जंगल मे खुद खाना बनाते थे, और खाने के नाम पर तो मैंने कई बार खिचड़ी खाई है ।और खिचड़ी भी तिमले के पत्तो कोई तो पत्थरों को साफ कर उन में ही खाते थे, क्या मज़ा आता था. बौंण अगर किसी गदेरे में पानी आता था तो मिट्टी के बड़े बड़े जिल्के लाकर वहाँ तलो बना देते थे फिर नांगा नहाते थे, अगर गौं की घस्यारी उस जगह से आती थी तो तब सिर्फ हमारी धौंणी बाहर दिखती थी, किसी माँ तो बच्चे को खूब डराती थी वहीं पर कि आ तू घर आज मैं नवाती हूँ तुझे छपोड़ कर फिर तेरे पिताजी तेरा तलौ बनायेंगे, कहीं बौजी तो इतनी मज्याक्योर होती थी कि ठुस करके आती और कपड़े उठा कर कहीं और पर रख देती, ग्वेर भी इतने लाटे होते थे कि कभी कभी उसी तलों में भैंसो को नहलाते थे………… यरां….. वो भी तो दिन थे आज बकिबात के दिन हो गये.
लेख – सुमित रिंगवाल
बहुत सुंदर 🙏
bahut khoob sumit bhai❤️❤️❤️👌👌
Awesome bhaiya…maine kabhi ye life dekhi nahi h but lagaa bht hai in sab se.