Bandhyo Banj – बंणद्यो बांज
वैंसे तो बांज के पेड़ उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में हर जगह पाया जाता है, और जिस क्षेत्र में बांज के पेड़ होते हैं वहां पानी की कमी नहीं होती है, और इसको जड़ो से निकलने वाला ठंडा पानी सबसे शुद्ध होता है, और जहां बांज के पेड़ होते हैं वहां ठंड सबसे ज्यादा होती है, इसके तनों में जहां पर खोकला होता है वहां से एक तारकोल जैंसा पदार्थ निकलता है, जिसको “बंस्योण” कहते हैं, यह बस्योंण एक प्राकृतिक जड़ी बुटी होती है, जो कि नवजात शिशु के पेट की बीमारी “खासकर जब नवजात बच्चे को शौच न हो” तब हमारे गांवों में इस दिया जाता है, और यह औषधी बहुत ही उपयुक्त है, और वर्षों से इसका उपयोग हो रहा है, ये तो थी बांज के पेड़ की विशेषता, मगर मेरा विषय “बंणद्यो बांज” (Bandhyo Banj) है.
आखिर क्यों हैं इसका नाम बंणद्यो बांज (Bandhyo Banj) ?
उत्तराखंड देवभूमि और इसके कंण कंण में देवी देवता वास करते हैं, उत्तराखंड के दूर हिमालयी गाँव में पाया जाने वाला यह बंणद्यो बांज का पेड़ सबसे पुराना और विशालकाय होता है जिसकी टहनियाँ बहुत दूर तक फैली होती हैं, इसको बंणद्यो बांज (Bandhyo Banj) इसलिये कहते हैं क्योंकि “बंणद्यो” का अर्थ है वन देवता और इसका थान (छोटा पत्थरों का मंदिर) इसके नीचे बनाया जाता है, गांव के ” ग्वेर” “ग्वाले” (गाय बैल बकरी चराने) वालों का अंगरक्षक या रक्षिपाल व अराध्य भी कहते हैं. जो कि ग्वेर छ्वोरोध की रक्षा करता है, इस पेड़ को वन देवता का साक्षी मानते हैं और गाँव के सभी ग्वेर सालभर में एक बार इसकी पूजा करते हैं, और यहीं पर वनदेवता का प्रसाद और खाना बनाते हैं, यहां तक कि इसको सिर्फ ग्वेर ही पूजते हैं, यह बंणद्यो बांज लोक संस्कृति का हिस्सा भी है, बहुत से जागर और पवांणो में इसका उल्लेख भी मिलता है,
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मेरे गाँव सांकरी मे जो खर्क (घास का मैदान) है वहां भी यह पेड़ विराजमान है, ग्वेर जब भी रविवार को गाय चराने जाते हैं तो इसके नीचे बैठकर, चुलभांडी, दस-बीस और भी बहुत से खेल खेलते हैं, न जाने कितनी पीड़ियों का यह पेड़ साक्षी है, हर ग्वेर का बच्चपन इसकी छाया में प्रकृति के करीब रहा है, यह पेड़ बारमास हराभरा ही रहता है, महाकवि कालीदास ने जिस वृक्ष की छाया में ज्ञान प्राप्त किया वो भी बांज का पेड़ है, जो कि आज भी कालीमठ के कविल्ठा गाँव में विराजमान है,
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वर्तमान समय में नयी पीढ़ी अब इन सबसे दूर होती जा रही है, ग्वेरों की तादाद कम होती जा रही है, जैंसे पहले के बच्चे रविवार को गायों के साथ जाने के लिए उत्सुक रहते थे वैंसे अब नहीं है, पहले घर-घर में बच्चे जिद्द करते थे गायों के साथ जंगल जाने के लिए, यहां तक कि छोटे भाइ और बड़े भाइ में गाय के साथ जाने के लिए लड़ायी होती थी, पहले भी रविवार,या विशेष छुट्टि के दिन या गर्मियों की छुट्टियों में गायों के साथ समय व्यतीत करते थे, और पेड़ो पर खेलना, जंगल की बारीकियों को समझते थे, और वो बच्चे मानसिक, शारीरिक रूप से परिपक्व थे, बच्चे स्कूल के साथ-साथ अपनी परंपराओं से जुड़े रहते थे, जो बच्चा या इंसान प्रकृति के जितने करीब रहता है वो कभी मानसिक तनाव से नहीं झूजता, अतः सुख व खुशी प्रकृति से मिलता है, तकनीकि व पैंसो से नहीं. क्योंकि पैंसो से बल्ब की रौशनी खरीदी जा सकती है मगर धूप नहीं.
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