बच्चपन और बुरांस (Bachhpan or Burans)
वो भी क्या दिन थे,
जब बुरांस पेड़ों पर कम,
मगर चेहरों पर ज्यादा खेले होते थे।।
मेरा किताबों से भरा बस्ता हल्का लगता था,
मेरी कक्षाएं उन दिनों मुझे भारी लगती थी,
मुझसे मेरी पहली कक्षा नहीं सही जाती थी,
मेरे इस उतावलेपन्न पर फ्योलीं भी खूब इतराती थी।।
दोपहर ढलने पर जब घाम दूर डांड्यों की ओर चला जाता था,
गाँव के बाटों पर सभी बच्चों का मिलना हो जाता था,
स्कूल का बस्ता बिस्तर पर रख कर भूख भी बड़ जाती थी,
ममता से भरे बर्तनों पर जब मां हमें दिन का चौंसा भात खिलाती थी।।
उम्मीदों के धागे और सुई जब साथ ले जाते थे,
उस पावन पर्व की डोर पर हम अपनी परंपराओं को बांध लाते थे,
हिमालय की धराओं में लाल रंग की लालिमा खिली होती थी,
खेतों की मेंडो पर फ्योंली भी खिल खिला उठती थी।।।
रिंगाल की बनी टोकरियों में फूलों को सजोने की परंपरा हमे भी खूब आती थी,
सूरज निकले से पहले जब वो फ्योंली दरवाजों पर खिल जाती थी,
ओंस से जमे पथरीले राहों पर जब नाजुक पैर पड़ते थे,
पत्थर भी अपनी ठिठुरन नाजुक पैरों से सेक लेते थे।।
घर-घर जाकर फूल डालना एक सुर हमारा होता था,
जै घोघा माता पय्यां पाती फूल नारा हमारा होता था,
बुरांस के फूलों जैंसी लालिमा जब गालों पर खिल जाती थी,
गुड़ और चाँवल से हमारी टोकरी भर जाती थी।।
सातों दिन चला ये पर्व जब खुशियां भरा मन को भाता था,
टूट चुके सारे बुरांस उस पेड़ के अब विचित्र सा लगता था,
गाहे बगाहे फूलों का महोत्सव जब हमसे छिन जाता था,
दूर धार में बुरांस भी हमारी इस व्याकुलता पर रो जाता था।।
वो सतरंगी फूलों का पर्व एक बार फिर जिंदगी में खिला दो,
मुझे मेरा बच्चपन और वो बुरांस लौटा दो।।
बहुत ही सुन्दर लिखा